भाई लोगों ने मिलकर एक फिल्म बना इज डाली,फिलिम टोटल टल्ली पर है ...साला टल्ली शूटर टल्ली होकर इस दुनिया से इज कल्टी मार गया...ऐसे इज बहुत शरीफ लोग भी दारू पीकर गाड़ी चलाते ऊपर चले जाते है ...तो क्या ये फिलिम तो एक दम हिट है बोस !जो भी देखेगा उसको या उसकी फॅमिली में किसी को गर किडनेप कर दिया तो भाईलोग टवंटी परसेंट लेस करेगा...क्योंकि अपुन लोगों का भी कोर्पोरेट सोसल रेस्पोंसिबिलिटी है...आने का नहीं तो अपुन तुमको देख लेगा ....फिलिम की समीक्षा पाखी भाई ने लिख डाली है...चुचाप पढलेने का ..ज्यास्ती बोलने का नहीं...क्या?
देश में प्रतिवर्ष सवा लाख से अधिक मौतों और राष्ट्रीय सम्पदा की एक लाख करोड़ से अधिक की हानि के जिम्मेदार सडक हादसों को रोकने के लिए किये जाने वाले अभिनव प्रयासों की बहुत बड़ी कमी वर्षों से नजर आरही है.ऐसे में परिवहन विभाग के अधिकारियों और सामाजिक संस्था के मिले जुले किसी भी प्रयास को सकारात्मक नजरिये से देखे जाने की आवश्यकता है.फिल्म ''चलो संभल के ,रहो संभल के''सडक सुरक्षा विषय पर बनाई गई प्रथम लघु फिल्म है जो हिंदी में है.लगभग एक घंटे की यह फिल्म आरम्भ से अंत तक अपनी सोद्धेश्यता को कायम रखती है.फिल्म में अनंत देसाई नाम के चरित्र के माध्यम से आम व्यक्ति दवारा सड़क सुरक्षा और नियमो के प्रति सतही और लापरवाही पूर्ण रवैये को दिखाया गया है जो बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश में गैरजिम्मेदार चालक और सामाजिक व्यक्ति है.अनंत देसाई की भूमिका धनपत सिंह ने निभाई है तथा जिम्मेदार पत्नी की भूमिका पायल कुमावत ने निभाई है.फिल्म रोचक तब हो जाती है जब यमराज और चित्रगुप्त सड़क हादसों से होने वाली मौतों से यमलोक की दशा बिगड़ने के कारण खोजने पृथ्वीलोक आते हैं और अनंत देसाई के साथ विचरण करते हुए सड़क सुरक्षा और इससे जुड़े विभिन्न आयामों को देखते है.यमराज की भूमिका में दीपक मोगरी जो फिल्म के निर्देशक भी है ने फिल्म को बाँधने का काम किया है,फिल्म में अनंत देसाई का बेटा मोटर साइकल की जिद पूरी न होने पर अपनी नसे काट कर आत्महत्या का प्रयास करता है एवं अनंत देसाई अपने बेटे को मोटर साइकल दिलाकर स्कूल की प्रिंसिपल को कहता है कि ''मेरे पास पैसे है तो मैंने बेटे को मोटर साइकल दिलाई है..''जिसको सुनकर दर्शक इस बात को सोचने पर मजबूर होता है कि समाज में किस प्रकार नए मूल्यों का प्रवेश हो चुका है .फिल्म का शीर्षक गीत ''चलो संभल के ...''बहुत अच्छा बना है.रोचक तथ्य यह है कि इस फिल्म के गीत मन्ना लाल रावत जो परिवहन सेवा के अधिकारी है एवं दीपक मोगरी ने लिखे है.फिल्म के सह निर्देशक प्रकाश सिंह राठौड़ जो फिल्म के तथ्यात्मक पक्ष और उद्धेश्य पूर्णता को बरक़रार रखने में सफल रहे है तथा शोधकर्ता ज्ञानदेव विश्वकर्मा दोनों ही परिवहन सेवा के अधिकारी है.इन अधिकारीयों के रचनात्मक प्रयासों ने फिल्म निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.समय चक्र के माध्यम से प्रगति और विकास को दर्शाने और टी वी पर परिचर्चा के माध्यम से राज्य सरकार कि सड़क सुरक्षा नीति एवं कार्यक्रमों की उपयोगी जानकारी आम आदमी तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है.हालाँकि फिल्म यहाँ कुछ खिंचती सी महसूस होती है पर अपने विषय और सरोकार से कहीं भी भटकती नहीं है.
पटकथा लेखक के रूप में दीपक मोगरी ने सशक्त कहानी लिखी है.हालाँकि फिल्म के पात्रों के अभिनय में थोड़ी बहुत कमी खलती है.परन्तु फिल्म आरम्भ से अंत तक एक सशक्त सामाजिक सन्देश देती है कि आदमी जानते हुए भी कैसे अनुशासन भंग करता है.परिवहन विभाग,राजस्थान राज्य परिवहन सेवा परिषद् और मानव जीवन रेखा संस्थान ने सीमित संसाधनों से अल्प समय में सड़क सुरक्षा विषय पर देश की पहली हिंदी भाषा में बनी लघु फिल्म का निर्माण किया है जो सराहनीय प्रयास है.
वस्तुतः प्रादेशिक परिवहन अधिकारी जितेन्द्र सिंह जिन्होंने इस विषय पर फिल्म बनाने के लिए 'लेक सिटी रोड सेफ्टी वीक' के दौरान एक टीम को इस काम में लगाया था,अब निश्चित ही अपनी टीम पर गर्व कर सकते है.फिल्म अपनी कमियों के बावजूद अपने मकसद को पूरा करती है.भारतीय संस्कृति को पृष्ठभूमि रख कर सड़क सुरक्षा के विषय पर बनी इस फिल्म का सन्देश इतना महत्वपूर्ण है कि शायद ही कोई परिवार ऐसा होगा जो अपने बच्चों सहित सभी परिजनों को यह फिल्म नहीं दिखाना चाहेगा.
पुनश्च-यह समीक्षा भाई लोगों ने सर पर घोडा रख कर लिखवाई गयी है...पाठक वास्तविकता जानने के लिए अपना विवेक काम में लें.
प्रकाश पाखी